लौट रहा था घर गर्मी में.
सिर पर थी टोपी की गठरी,
कपड़े चिपक रहे थे तन में.
थक कर उसको चलते चलते,
छायादार पेड़ नजर था आया.
खूब लदे मीठे फल उस पर,
ठंडी हवा, घनी थी छाया.
गठरी को वह नीचे रखकर,
थक कर लेट गया छाया में.
गहरी नींद आ गयी उसको,
ठंडी घनी पेड़ छाया में.
टूटी नींद तो उसने देखा,
उसकी गठरी खुली हुई थी.
बन्दर बैठे थे पेड़ों पर,
टोपी सिर पर लगी हुईं थी.
पाने को वापिस वो टोपियाँ,
उसने पत्थर बन्दर पर फेंके.
उसके बदले सब बन्दर ने,
तोड़ तोड़ फल उस पर फेंके.
लगा खुजाने सिर व्यापारी,
एक तरकीब समझ में आयी.
अपनी टोपी को उतार कर,
उन बन्दर की तरफ हिलायी.
व्यापारी ने फिर अपनी टोपी,
दूर जमीं पर जोर से फेंकी.
बन्दर होते सदां नकलची,
अपनी टोपी भी उनने फेंकी.
अपनी सभी टोपियाँ लेकर,
बांधी उसने अपनी गठरी.
खुश हो कर वह चला वहां से,
सिर पर रखकर के वो गठरी.
कोई भी विपत्ति जब आये,
धीरज अपना कभी न खोना.
सदां बुद्धि से राह निकलती,
व्यर्थ सदां संकट में रोना.
अपनी सभी टोपियाँ लेकर,
बांधी उसने अपनी गठरी.
खुश हो कर वह चला वहां से,
सिर पर रखकर के वो गठरी.
कोई भी विपत्ति जब आये,
धीरज अपना कभी न खोना.
सदां बुद्धि से राह निकलती,
व्यर्थ सदां संकट में रोना.